कहानी संग्रह >> मेरी प्रिय कहानियाँ अमृतलाल नागर मेरी प्रिय कहानियाँ अमृतलाल नागरअमृतलाल नागर
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स्वयं चुनी कहानियाँ जो उनकी समग्र कथा-यात्रा का प्रतिनिधित्व करती हैं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेमचंद के बाद के कथाकारों में अमृतलाल नागर का स्थान बहुत ऊंचा है, और
उन्हें हिन्दी साहित्य को विश्व स्तर पर ले जाने का गौरव प्राप्त है।
उपन्यासों की भांति उनकी कहानियां भी सभी रंगों में लिखी गई हैं और बहुत
पसंद की जाती रही हैं। इस संकलन के लिए उन्होंने स्वयं कहानियाँ चुनी हैं
जो उनकी समग्र कथा-यात्रा का प्रतिनिधित्व करती हैं।
अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य निधि बन गया है।
सभी प्रचलित वादों से निर्लिप्त उनका कृतित्व और व्यक्तित्व कुछ अपनी ही प्रभा से ज्योतित है उन्होंने जीवन में गहरे पैठकर कुछ मोती निकाले हैं। और उन्हें अपनी रचनाओं में बिखेर दिया है
उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं।
अमृतलाल नागर हिन्दी के उन गिने-चुने मूर्धन्य लेखकों में हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा है वह साहित्य निधि बन गया है।
सभी प्रचलित वादों से निर्लिप्त उनका कृतित्व और व्यक्तित्व कुछ अपनी ही प्रभा से ज्योतित है उन्होंने जीवन में गहरे पैठकर कुछ मोती निकाले हैं। और उन्हें अपनी रचनाओं में बिखेर दिया है
उपन्यासों की तरह उन्होंने कहानियाँ भी कम ही लिखी हैं परन्तु सभी कहानियाँ उनकी अपनी विशिष्ठ जीवन-दृष्टि और सहज मानवीयता से ओतप्रोत होने के कारण साहित्य की मूल्यवान सम्पत्ति हैं।
भूमिका
सैतीस वर्ष पहले मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई थी। उसके लगभग दो-तीन वर्ष
पहले से ही मैं कहानियाँ लिख-लिखकर इधर-उधर भेजने अवश्य लगा था परन्तु वे
प्रकाशित होने का सौभाग्य लाभ न कर सकीं। उन आरम्भिक रचनाओं की
पाण्डुलिपियाँ भी अब सुलभ नहीं, केवल स्मृति में यह संस्कार शेष है कि
उसमें कुछ कहानियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी थीं। उन आरम्भिक कहानियों में
‘समाज-सुधार’ और ‘राष्ट्रीयता’
का गहरा पुट था,
यह मुझे याद है। उनके प्रकाशित न होने पर कुण्ठावश चाल बदलकर चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ और जयशंकर प्रसाद की भाषा-शैली अपनाई। किन्तु उसमें भी कोई जस मेरे हाथ न लग सका। सन् 1934 में ‘माधुरी’ पत्रिका में कुछ कहानियाँ प्रकाशित होने से मेरे लिए साहित्य के स्वर्ग द्वार का ‘सम-सम’ खुल गया। एक बार छपने का क्रम आरम्भ हो जाने पर मेरी कुछ एक ‘हृदयेश-प्रसाद’ शैली वाली पूर्व तिरस्कृत कहानियाँ भी छप गईं। उस समय वे मुझे प्रिय लगती थीं किन्तु मेरे मन में उनके लिए कोई जगह नहीं है।
अगस्त सन् 1935 ई. में मेरा पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ। उसकी एक प्रति सम्मत्यर्थ प्रेमचन्द जी की सेवा में भेजी। उनका पत्र भी पाया। वाटिका के फूलों की खुशबू तो उन्हें अच्छी लगी पर साथ ही यह भी लिखा, ‘‘मैं तुमसे ‘रियलिस्टिक’ कहानियाँ चाहता हूं।’’ कलकत्ते में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के दर्शन करने पर उनसे भी यही मंत्र मिला था कि जो लिखो वह अपने अनुभव से लिखो लेकिन इन दोनों ही महान लेखकों के उपदेश मन में चकफेरी लगाते रहने के बावजूद तब तक अपना कोई केन्द्र स्थापित न कर पाए थे।
डिक्शनरियों से कठिन शब्द खोज-खोजकर कवित्वमय कथाशैली में उनका प्रयोग करने में ही अपनी शान समझता रहा। मुझे याद है प्रेमचन्द के पत्र पाने के तुरन्त बाद ही मैं एक वैसी ही महान् लघुकथा लिखकर ‘माधुरी’ के संपादक स्व.पं. रूपनारायण पाण्डेय जी की सेवा में ले गया। कहानी पर नजर डालकर पाण्डेय जी अपने सहज मीठे ढंग से बोले, ‘‘भैया, तुम बहुत विद्वान हो गए हो, अब तुम्हारी कहानियों के नीचे फुटनोट लगाने पड़ेंगे।’’
उस कहानी के अस्वीकृत हो जाने के बाद मेरा मन बैठ गया। पांच-छः महीनो तक फिर एक अक्षर भी न लिख सका हाँ इस बीच में मोपासां, चेखव आदि पश्चिमी लेखकों की कहानियाँ खूब पढ़ीं। मोपासां की कुछ कहानियों का अनुवाद किया। उस अनुवाद के दौर में भी मेरी वह छायावादी शैली पूरी तरह से छूट न पाई थी। सन् 36 में किसी समय मेरे लेखन का नया दौर आरम्भ हुआ। ‘शकीला की मां’ लिखकर मुझे लगा
कि इसमें शरतचन्द्र और प्रेमचन्द्र के अनुभव और रियलिज्म वाली शर्तों की पूर्ति के साथ ही सहज बोलचाल की भाषा में कहानियाँ लिखने की पाण्डेय जी वाली शर्त भी पूरी कर दी है। कहानी मुझे और मेरे मित्रों को ही नहीं वरन स्व. निराला जी को बहुत पसन्द आई थी किन्तु दुर्भाग्यवश उसे प्रकाश कहीं न मिला न ‘माधुरी’ में, न ‘हंस’ में, न और कहीं। सन् 37 में अपना साप्ताहिक पत्र ‘चकल्लस’ निकालने पर मैंने उसे स्वयं ही प्रकाशित किया था। छपने पर उस जमाने में नये लोगों ने उसे बहुत सराहा। लखनऊ के एक बंगाली नवयुवक ने उसका अनुवाद भी किया था। पता नहीं वह मेहनत किसी बंगला पत्र-पत्रिका में सफलीभूत हुई थी
या नहीं पर अपने अनुवाद की प्रतिलिपि जो बकलम खुद लिखकर वे मुझे अर्पित कर गए थे, आज भी मेरे पास सुरक्षित है। ‘शकीला की माँ’ कहानी मुझे आज भी प्रिय है और इस संग्रह में अपने विकास की उस पहली मंजिल को मैं पहला स्थान ही देता हूँ।
इस संग्रह के विषय में यह दावा तो हरगिज नहीं कर सकता कि इसमें मेरी सभी प्रिय कहानियाँ संकलित हो गई हैं फिर भी सन् 36 से सन् 62-63 के काल में लिखी गई मेरी हर रंग की कहानियों का प्रतिनिधित्व इस संग्रह में अवश्य हो जाता है। अपनी इन रचनाओं के शिल्प आदि के संबंध में स्वयं चर्चा करने की मेरी इच्छा नहीं है। हां, यह अवश्य कहना चाहता हूं कि मेरी यह रचनाएँ जीवन के यथार्थ-बोध से निःसन्देह जुड़ी हुई हैं। और इन कहानियों का शिल्प इनमें निहित बातों से ही उनका और संवरा है।
मैंने शिल्प के लिए ही शिल्प का मंत्र आज तक नहीं साधा। इधर कुछ वर्षों से मैंने प्रायः एक भी कहानी नहीं लिखी। इसका एक कारण यह भी है कि साहित्य के आलोचकों ने मेरी कहानियों का कोई विशेष नोटिस नहीं लिया। कारण जो भी हो, पर यह स्थिति मेरे सृजनशील मन को कहानियाँ रचने लायक प्रफुल्लित नहीं कर पाती। पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा मुझसे अब भी कहानियाँ माँगी जाती हैं पर ‘सिर्फ आर्डर सप्लाई’ के लिए ही लिखना मुझे अच्छा नहीं लगता। जो भी हो, राजपाल एण्ड सन्ज ने मुझसे यह कथा-संग्रह माँगकर मेरी चुटीली अहंता को जो मरहम लगाया है उसके लिए उनके प्रति धन्यवाद प्रेषित करता हूँ।
यह मुझे याद है। उनके प्रकाशित न होने पर कुण्ठावश चाल बदलकर चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ और जयशंकर प्रसाद की भाषा-शैली अपनाई। किन्तु उसमें भी कोई जस मेरे हाथ न लग सका। सन् 1934 में ‘माधुरी’ पत्रिका में कुछ कहानियाँ प्रकाशित होने से मेरे लिए साहित्य के स्वर्ग द्वार का ‘सम-सम’ खुल गया। एक बार छपने का क्रम आरम्भ हो जाने पर मेरी कुछ एक ‘हृदयेश-प्रसाद’ शैली वाली पूर्व तिरस्कृत कहानियाँ भी छप गईं। उस समय वे मुझे प्रिय लगती थीं किन्तु मेरे मन में उनके लिए कोई जगह नहीं है।
अगस्त सन् 1935 ई. में मेरा पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ। उसकी एक प्रति सम्मत्यर्थ प्रेमचन्द जी की सेवा में भेजी। उनका पत्र भी पाया। वाटिका के फूलों की खुशबू तो उन्हें अच्छी लगी पर साथ ही यह भी लिखा, ‘‘मैं तुमसे ‘रियलिस्टिक’ कहानियाँ चाहता हूं।’’ कलकत्ते में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के दर्शन करने पर उनसे भी यही मंत्र मिला था कि जो लिखो वह अपने अनुभव से लिखो लेकिन इन दोनों ही महान लेखकों के उपदेश मन में चकफेरी लगाते रहने के बावजूद तब तक अपना कोई केन्द्र स्थापित न कर पाए थे।
डिक्शनरियों से कठिन शब्द खोज-खोजकर कवित्वमय कथाशैली में उनका प्रयोग करने में ही अपनी शान समझता रहा। मुझे याद है प्रेमचन्द के पत्र पाने के तुरन्त बाद ही मैं एक वैसी ही महान् लघुकथा लिखकर ‘माधुरी’ के संपादक स्व.पं. रूपनारायण पाण्डेय जी की सेवा में ले गया। कहानी पर नजर डालकर पाण्डेय जी अपने सहज मीठे ढंग से बोले, ‘‘भैया, तुम बहुत विद्वान हो गए हो, अब तुम्हारी कहानियों के नीचे फुटनोट लगाने पड़ेंगे।’’
उस कहानी के अस्वीकृत हो जाने के बाद मेरा मन बैठ गया। पांच-छः महीनो तक फिर एक अक्षर भी न लिख सका हाँ इस बीच में मोपासां, चेखव आदि पश्चिमी लेखकों की कहानियाँ खूब पढ़ीं। मोपासां की कुछ कहानियों का अनुवाद किया। उस अनुवाद के दौर में भी मेरी वह छायावादी शैली पूरी तरह से छूट न पाई थी। सन् 36 में किसी समय मेरे लेखन का नया दौर आरम्भ हुआ। ‘शकीला की मां’ लिखकर मुझे लगा
कि इसमें शरतचन्द्र और प्रेमचन्द्र के अनुभव और रियलिज्म वाली शर्तों की पूर्ति के साथ ही सहज बोलचाल की भाषा में कहानियाँ लिखने की पाण्डेय जी वाली शर्त भी पूरी कर दी है। कहानी मुझे और मेरे मित्रों को ही नहीं वरन स्व. निराला जी को बहुत पसन्द आई थी किन्तु दुर्भाग्यवश उसे प्रकाश कहीं न मिला न ‘माधुरी’ में, न ‘हंस’ में, न और कहीं। सन् 37 में अपना साप्ताहिक पत्र ‘चकल्लस’ निकालने पर मैंने उसे स्वयं ही प्रकाशित किया था। छपने पर उस जमाने में नये लोगों ने उसे बहुत सराहा। लखनऊ के एक बंगाली नवयुवक ने उसका अनुवाद भी किया था। पता नहीं वह मेहनत किसी बंगला पत्र-पत्रिका में सफलीभूत हुई थी
या नहीं पर अपने अनुवाद की प्रतिलिपि जो बकलम खुद लिखकर वे मुझे अर्पित कर गए थे, आज भी मेरे पास सुरक्षित है। ‘शकीला की माँ’ कहानी मुझे आज भी प्रिय है और इस संग्रह में अपने विकास की उस पहली मंजिल को मैं पहला स्थान ही देता हूँ।
इस संग्रह के विषय में यह दावा तो हरगिज नहीं कर सकता कि इसमें मेरी सभी प्रिय कहानियाँ संकलित हो गई हैं फिर भी सन् 36 से सन् 62-63 के काल में लिखी गई मेरी हर रंग की कहानियों का प्रतिनिधित्व इस संग्रह में अवश्य हो जाता है। अपनी इन रचनाओं के शिल्प आदि के संबंध में स्वयं चर्चा करने की मेरी इच्छा नहीं है। हां, यह अवश्य कहना चाहता हूं कि मेरी यह रचनाएँ जीवन के यथार्थ-बोध से निःसन्देह जुड़ी हुई हैं। और इन कहानियों का शिल्प इनमें निहित बातों से ही उनका और संवरा है।
मैंने शिल्प के लिए ही शिल्प का मंत्र आज तक नहीं साधा। इधर कुछ वर्षों से मैंने प्रायः एक भी कहानी नहीं लिखी। इसका एक कारण यह भी है कि साहित्य के आलोचकों ने मेरी कहानियों का कोई विशेष नोटिस नहीं लिया। कारण जो भी हो, पर यह स्थिति मेरे सृजनशील मन को कहानियाँ रचने लायक प्रफुल्लित नहीं कर पाती। पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा मुझसे अब भी कहानियाँ माँगी जाती हैं पर ‘सिर्फ आर्डर सप्लाई’ के लिए ही लिखना मुझे अच्छा नहीं लगता। जो भी हो, राजपाल एण्ड सन्ज ने मुझसे यह कथा-संग्रह माँगकर मेरी चुटीली अहंता को जो मरहम लगाया है उसके लिए उनके प्रति धन्यवाद प्रेषित करता हूँ।
चौक, लखनऊ
12.1.1970
12.1.1970
-अमृतलाल नागर
शकीला की मां
केले और अमरूद के तीन-चार पेड़ों से घिरा कच्चा आँगन। नवाबी युग की याद
में मर्सिया पढ़ती हुई तीन-चार कोठरियाँ। एक में जमीलन, दूसरी में जमलिया,
तीसरी में शकीला, शहजादी, मुहम्मदी। वह ‘उजड़े पर
वालों’ के
ठहरने की सराय थी।
एक दिन जमीलन की लड़की शकीला, दो घण्टे में अपनी मौसी के यहाँ से लौट आने की बात कह, किसी के साथ कहीं चल दी। इस पर घर में चख-चख और तोबा-तोबा मचा, उसे देखने में लोगों को बड़ा मजा आया। दिन-भर बाजार के मनचले दुकानदारों की जबान पर शकीला की ही चर्चा रही और, तीसरे दिन सबेरे, आश्चर्य-सी वह लौट भी आई।
लोगों ने देखा-कानों में लाल-हरे रंग नग-जड़े सोने के झुमके, ‘धनुशबानी’ रंग की चुनरी, गोटा टंका रेशमी कुरता और लहंगा।
घर की चौखट पर पैर रखते ही पहले-पहल, मुहम्मदी ने थोड़ा मुस्कराकर, उसकी ठोड़ी को अपनी उँगलियों की चुटकी से दबाते हुए पूछा, ‘‘ओ-हो-री झंको बीबी, दो दिन कहाँ रही ?’’
शकीला केवल मुस्कराकर आगे बढ़ गई।
झब्बन मियां की दाढ़ी में कितने बाल हैं, अथवा उनकी नुमायशी तोंद का वज़न कितना है, यह तो आपको शहज़ादी ही बता सकेगी। हां, उनका सिन इस समय पचास-पचपन के करीब होगा, यह आसानी से जाना जा सकता है। एक दिन जब आप खुदा के नूर में खिजाब लगाकर शकीला से हंस-हंसकर कुछ फरमा रहे थे, तब शहज़ादी ने उनके जवान दिल पर कितनी बार थूका था, मुहम्मदी उसकी गवाह है।
एक दिन जमीलन की लड़की शकीला, दो घण्टे में अपनी मौसी के यहाँ से लौट आने की बात कह, किसी के साथ कहीं चल दी। इस पर घर में चख-चख और तोबा-तोबा मचा, उसे देखने में लोगों को बड़ा मजा आया। दिन-भर बाजार के मनचले दुकानदारों की जबान पर शकीला की ही चर्चा रही और, तीसरे दिन सबेरे, आश्चर्य-सी वह लौट भी आई।
लोगों ने देखा-कानों में लाल-हरे रंग नग-जड़े सोने के झुमके, ‘धनुशबानी’ रंग की चुनरी, गोटा टंका रेशमी कुरता और लहंगा।
घर की चौखट पर पैर रखते ही पहले-पहल, मुहम्मदी ने थोड़ा मुस्कराकर, उसकी ठोड़ी को अपनी उँगलियों की चुटकी से दबाते हुए पूछा, ‘‘ओ-हो-री झंको बीबी, दो दिन कहाँ रही ?’’
शकीला केवल मुस्कराकर आगे बढ़ गई।
झब्बन मियां की दाढ़ी में कितने बाल हैं, अथवा उनकी नुमायशी तोंद का वज़न कितना है, यह तो आपको शहज़ादी ही बता सकेगी। हां, उनका सिन इस समय पचास-पचपन के करीब होगा, यह आसानी से जाना जा सकता है। एक दिन जब आप खुदा के नूर में खिजाब लगाकर शकीला से हंस-हंसकर कुछ फरमा रहे थे, तब शहज़ादी ने उनके जवान दिल पर कितनी बार थूका था, मुहम्मदी उसकी गवाह है।
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